Wednesday, December 9, 2009

तेरे बिन

क्यूँ भाग रही है खुद से ही, जो पन्नो पर लिख जाती है

है आग लगी जो इस दिल में, क्या स्याही से बुझ पाती है


मेरे कहे हुए लफ़ज़ो को क्यूँ,दिल में खुद ही दोहराती है

और याद मुझे कर-कर के क्यूँ,यू मन ही मन मुस्काती है

क्यूँ अधरो की मुस्कान कही खामोशी में खो जाती है

जब कभी किसी दिन सखियो से, मेरा नाम नही सुन पाती है


एक दर्द दिया मुझको तूने, खुद तो सौ दर्द भी झेले है

सब साथ तेरे तो चलते हैं , फिर भी क्यूँ जाने अकेले है


शायद तू कभी ये जान सके, कि सब का साथ नही मुमकिन

ये जीवन तेरी खातिर है, और कुच्छ भी नही ये तेरे बिन

2 comments:

Akanksha said...

Good One

Ashraf's Pen said...

Nice one.

The rejection of rejection itself as something that was not your fault.

Interesting theme