Tuesday, December 15, 2009

नहीं, एक ग़ज़ल

I plan to contribute only poetry to this blog. Let the sanctity be maintained. Its a pleasure to be added as a contributor to this blog.


नहीं, एक ग़ज़ल

उसने मुझे आशिक कहके ताल दिया,मगर
बात में उसकी एक जादू था जो मैं रूठा भी नहीं |

कहती है खेल हैं सब,मगर मुझे बताये वोह आज
आग अगर इधर है तो क्या धुआं उधर नहीं |

ये खुमार नहीं सुरूर है तेरा क्या बताओं तुम्हे,
मैं तेरे इश्क में यूँ डूबा की जागा ही नहीं |

मैं उसके दो इशारों में ही सब समझ जाता हूँ,
वोह तीन लफ़्ज़ों में भी क्यूँ हाल बता पाती नहीं |

वही मेरी मुंसिफ है, वही मेरी कातिल भी,
मेरे इश्क के हक में फैसला देगी या नहीं |

'दाग़', जल रही है एक ग़ज़ल सीने में,
अर्ज़ करता हूँ बार-बार, फिर भी क्यूँ बुझती नहीं .|

स्येद अशरफ हुसैन 'दाग़ '