नहीं, एक ग़ज़ल
उसने मुझे आशिक कहके ताल दिया,मगर
बात में उसकी एक जादू था जो मैं रूठा भी नहीं |
कहती है खेल हैं सब,मगर मुझे बताये वोह आज
आग अगर इधर है तो क्या धुआं उधर नहीं |
ये खुमार नहीं सुरूर है तेरा क्या बताओं तुम्हे,
मैं तेरे इश्क में यूँ डूबा की जागा ही नहीं |
मैं उसके दो इशारों में ही सब समझ जाता हूँ,
वोह तीन लफ़्ज़ों में भी क्यूँ हाल बता पाती नहीं |
वही मेरी मुंसिफ है, वही मेरी कातिल भी,
मेरे इश्क के हक में फैसला देगी या नहीं |
'दाग़', जल रही है एक ग़ज़ल सीने में,
अर्ज़ करता हूँ बार-बार, फिर भी क्यूँ बुझती नहीं .|
स्येद अशरफ हुसैन 'दाग़ '
2 comments:
nice
good one
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